भारतीय संस्कृति, हिंदी एवं मानवीयता -डा. शशि धनगर

ग्रेटर नोएडा ( भारत भूषण शर्मा)परम्परा, प्रतिष्ठा और अनुशासन इस गुरुकुल के अभिन्न अंग रहे हैं…एक फिल्म का यह संवाद हिंदी के प्रभाव की महत्ता के कारण ही लोगों की जुबाँ पर चढ़ गया था…! १२० वर्ष पहले विवेकानंद का हिंदी में दिया भाषण आज भी भारत की पहचान है…तो क्यों कुछ लोग हिंदी में बोलते वक़्त स्वयं को गौरवान्वित महसूस नहीं करते…! जबकि शुद्ध, स्पष्ट और क्लिष्ट हिंदी बोलने वालों ने धूम मचा राखी है…!  
भाषा-संस्कृति की महत्ता भारतीय साहित्य में दृष्टिगोचर होती है… महाभारत काल में विज्ञान एवं तकनीकि अपने सर्वोतम शिखर पर थे…राजनीति के पुरोधा चाणक्य के विचार आज भी प्रासंगिक हैं… मीनाक्षी मंदिर शिल्पकला की विशिष्टता को दर्शाता है…खजुराहो सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में भारत को वैश्विक स्तर प्रदान करता है…आत्मसम्मान एवं जुझारू प्रवृति भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में दृष्टिगोचर होती है…! योग की विशिष्टताओं ने विश्वव्यापी परचम लहराया है…!

डॉ शशि धनगर संस्थापक निदेशक
7 वंडर्स स्कूल ग्रेटर नोएडा


हमारी विशिष्ट सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं वैज्ञानिक पहचान होते हुए भी क्यों हम भारतीय हिंदी बोलने में सम्मान की अनुभूति नहीं कर पाते…क्योंकि हमें अपने इतिहास की एवं अपनी उपलब्धियों की समुचित जानकारी नहीं है…! और यही कारण है कि हम अपनी संस्कृति को भी अपने दैनिक जीवन में व्यवहारिक रूप से अपनाने में असमंजस की स्तिथि में होते हैं…! यदि हम अपनी भाषा संस्कृति को महत्त्व नहीं देंगे…तो आत्मसम्मान की भावना कैसे आएगी…जबकि हमारी अपनी जड़ों से जुड़े रहकर ही हमारा पहचान और प्रगति संभव है…!
वैश्वीकरण के वातावरण में हम खान-पान, रहन-सहन सुविधानुसार बदल सकते हैं…बल्कि बदलना भी चाहिए क्योंकि वर्तमान आवश्यकताओं में जो प्रासंगिक है, अपनाना सर्वथा उचित, आवश्यक एवं वांछनीय है…लेकिन “आत्मसम्मान” तभी संभव है, जब हम अपनी संस्कृति की विशिष्टताओं को अपनाएँ एवं उसका प्रचार-प्रसार करें…! 
चीन, जापान जैसे देश अपनी भाषा को अपनाकर ही प्रगतिशील हैं…विभिन्न दक्षिण भारतीय राज्य अपनी भाषा और परम्पराओं को आज भी गौरव से अपनाये हुए हैं…तो हम क्यों अपनी भाषा और संस्कृति को अपनाने में संकोच रखते हैं…! जबकि शुद्ध एवं सुसंस्कृत हिंदी का उच्चारण गौरव की अनुभूति कराता  है…!
 हमारी संस्कृति की अनगिनत विशेषतायें– आचार-व्यवहार के तौर-तरीके, बुजुर्गों का सम्मान, परिवार की महत्ता, महिलाओं का सम्मान  इत्यादि अनमोल धरोहर हैं, सहन-शक्ति, कर्मठता, दान, करुणा एवं परोपकार लोगों की जीवन शैली के अभिन्न अंग रहे हैं…जिनकी आवश्यकता वर्तमान तकनीकि विकास एवं भौतिक युग में और भी बढ़ जाती है…इन विशेषताओं को हम स्वयं अपनाएँ तथा वैश्विक स्तर पर लोगों के संज्ञान में लायें…क्योंकि वैज्ञानिक एवं तकनीकि विकास की अवस्था में आत्मनुभूति एवं आत्मसम्मान की महती आवश्यकता पड़ती है, जिसका निवारण भारतीय संस्कृति में निहित है…! 
व्यवहारिक रूप में इन भारतीय विशेषताओं में कुछ नकारात्मक प्रवर्तियाँ आ गयीं हैं, जिनका निराकरण आज की युवा पीढ़ी अपनी समझदारी, कुशलता एवं प्रासंगिकता से कर रही है, तथा इसकी उत्कृष्टता के लिए दैनिक जीवन में अपनाना और भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि वर्तमान आपाधापी में जब जड़ें जमीन के अंदर होंगी तभी पेड़ आंधी में भी सम्मान से खड़ा रह सकेगा…!
मानवीयता, आत्मसम्मान एवं कर्मठता किसी भी युग में अपनी प्रासंगिकता नहीं खोते…और भारतीय संस्कृति इन विशेषताओं का घर है…! और इन भारतीय विशेषताओं का लाभ समस्त मानवजाति को मिलना चाहिए…! भोगोलिक सीमाएं मनुष्यता के दायरे के परे हैं…और समस्त विश्व के प्राणी-जगत को इनका लाभ मिल सके, यह जिम्मेदारी हम भारतीयों की है, जिसके लिए हिंदी भाषा को संवाही बनाना ही आवश्यक होगा, क्योंकि यह जन-जन में बसी है…कुछ अंग्रेजी में रूपांतरण करने वाले लोग समस्त भारतीय विशेषताओं के संवाहक नहीं हो सकते, इसी परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ इसको गौरवमयी अंदाज में अपनाना मानव-मात्र के लिए निर्णायक होगा…

 

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